ज्ञान दत्त पाण्डेय का ब्लॉग (Gyan Dutt Pandey's Blog)। मैं गाँव विक्रमपुर, जिला भदोही, उत्तरप्रदेश, भारत में रह कर ग्रामीण जीवन जानने का प्रयास कर रहा हूँ। ज़ोनल रेलवे के विभागाध्यक्ष के पद से रिटायर रेलवे अफसर।
भाजपा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को बार बार दर्शाया उमाशंकर ने। लेकिन साथ में यह भी कहा कि पार्टी कार्यकर्ता को अहमियत नहीं देती।
यदाकदा डबलरोटी वाले की दुकान पर जाता हूं। पहले यह दुकान – गुमटी – नेशनल हाईवे पर थी। फिर हाईवे के छ लेन का बनने का काम होने लगा तो गुमटी उसे हटानी पड़ी। बाजार के अंदर, दूर नेवड़िया की ओर जाते रास्ते पर उसने शिफ्ट कर लिया अपना व्यवसाय।
उमाशंकर की डबल रोटी-बेकरी की दुकान। बगल में उनकी पुत्रवधू हैं।
उनका नाम पूछा तो उनकी पुत्र वधू ने बताया – उमाशंकर।
बसन्त न हों तो भाजपा और कांग्रेस के इन नेताओं की नेतागिरी के जलवे की चमक निकल जाये।
मेरे दो साले साहब उत्तर प्रदेश के सबसे लोकप्रिय व्यवसाय में हैं। नेतागिरी में। बड़े – देवेन्द्र भाई (देवेन्द्रनाथ दुबे) कांग्रेस में हैं। इन्दिरा और राजीव गांधी के जमाने में विधायकी का चुनाव लड़ चुके हैं कांग्रेस की ओर से। आजकल जिला कांग्रेस के महासचिव हैं (यह अलग बात है कि कांग्रेस पूरे पूर्वांचल में वेण्टीलेटर पर है)।
दूसरे – शैलेन्द्र दुबे – भाजपा में हैं। दो बार गांव प्रधान रह चुके हैं। एक बार भाजपा का विधायकी का टिकट पाये थे, पर समाजवादी के उम्मीदवार से हार गये। अगली बार टिकट पाने से चूक गये। फिलहाल सांसद प्रतिनिधि हैं। मैं चाहूंगा कि भाजपा इन्हे भी सांसद बनने के योग्य मानना प्रारम्भ कर दे।
इन दोनों को यह ज्ञात है कि जनता नेता को झकाझक ड्रेस में देखना पसन्द करती है। साफ झक कुरता-धोती या कुरता-पायजामा। कलफ (स्टार्च) से कड़क क्रीज। इतना ग्रेसफुल पहनावा रहे कि कोई भी उनकी ओर देखे और उनपर अटेण्टिव रहे। दोनो अपनी पर्सनालिटी-कान्शस हैं। दोनो जानते हैं कि उनका पचास-साठ फीसदी आभा मण्डल उनके वेश से बनता है।
बनवासी (मुसहरों) का भोजन
[…]उनके पास कोई अलमारी-मेज जैसी चीज तो थी नहीं। आसपास के जीव जन्तुओं और कुत्तों से बचाने के लिये लकड़ी के डण्डे जमीन में गाड़ कर उसके दूसरे सिरे पर भोजन की बटुली-बरतन लटका रखे थे उन्होने।[…]
उनके पास आवास नहीं हैं। प्रधानमन्त्री आवास योजना में उनका नम्बर नहीं लगा है। गांव में जिस जमीन के टुकड़े पर वे रहते हैं वह ग्रामसभा की है। बन्जर जमीन के रूप में दर्ज। आठ परिवार हैं। गांव उन्हें लम्बे अर्से से रहने दे रहा है, उससे स्पष्ट है कि वे जरायम पेशा वाले नहीं हैं। गांव की अर्थव्यवस्था में उनका योगदान है। सस्ता श्रम उपलब्ध कराते होंगे वे।
घर आकर चिन्ना (पद्मजा) पाण्डे ने बताया कि स्कूल में बच्चे उसपर doggerel (निरर्थक बचपन की तुकबंदी) कहते हैं –
पद्मजा पान्दे (पद्मजा पाण्डे) चूनी धईके तान्दे (चोटी धर कर – पकड़ कर तान दे) खटिया से बान्दे (खटिया से बाँध दे)
डॉगरेल बचपन के कवित्त हैं। निरर्थक, पर उनमें हास्य, व्यंग, स्नेह, संस्कृति, भाषा – सभी का स्वाद होता है। मैं कल्पना करता हूं पद्मजा (चिन्ना) की लम्बी चोटी की। इतनी तम्बी कि उसे खींच कर चारपाई के पाये से बांधा जा सके। उसकी मां उसे चोटी लम्बी करने का लालच दे दे कर उसे पालक, पनीर, सब्जियां और वह सब जो उसे स्वादिष्ट नहीं लगते; खिलाती है। और वह बार बार सूरदास के कवित्त के अंदाज में पूछती है – मैया मेरी कबहूं बढैगी चोटी!
रिटायरमेण्ट के बाद जब मित्र भी नहीं बचते (शहर के मित्र शहर में छूट गये, गांव के अभी उतने प्रगाढ़ बने नहीं) तो पठन ही मित्र हैं। दिन भर लिखा पढ़ने में बहुत समय जाता है। पर बहुत व्यवस्थित नहीं है पठन।
गांव में अखबार वाला समाचारपत्र बड़ी मुश्किल से देता है। पत्रिकायें नहीं मिलतीं। उसका विकल्प टैब पर Magzter पर पत्रिकायें पढ़ने से मिलता है। पुस्तकों की संक्षिप्तता का एप्प – Blinkist बड़े काम का है। पुस्तक परिचय का बहुत महत्वपूर्ण काम उनसे हो जाता है। अमेजन से किण्डल पर पुस्तकें खरीद कर पढ़ी जा सकती/जाती हैं। अमेजन प्राइम कई पुस्तकें मुफ्त में पढ़ने को दे देता है। उसके अलावा नेट पर उपलब्ध क्लासिक्स या पायरेटेड अच्छी पुस्तकों का भण्डार है। पेपर पर छपी पुस्तकें खरीदना लगभग खतम हो गया है पर पहले खरीदी पुस्तकों का भी बडा बैकलॉग है।
विजय जी के रेस्तरॉ में जाते मुझे दो सप्ताह से अधिक हो गया। वहां जाने की पहली पोस्ट दस जनवरी को लिखी थी। तब से अब तक परिचय की प्रगाढ़ता बहुत हो गयी है। उनके व्यक्तित्व के कई अन्य पहलू बातचीत में सामने आ रहे हैं।
आज उन्होने बातचीत के क्रम में नहीं, यूं ही कहा – आपने किसी व्यक्ति को देखा है, जिसपर कोई दबाव न हो? कोई भी दबाव।
विजय तिवारी
वे शायद अपने रेस्तरॉं के उपक्रम के दबाव (तनाव) की बात कर रहे थे। नया काम प्रारम्भ किया है तो उसके उतार चढ़ाव झेलने पड़ ही रहे होंगे। उन्होने बताया कि दो दिन पहले रात में एक गुजराती परिवार आ गया। प्रयागराज से वाराणसी जा रहा था। परिवार के चार सदस्य और एक वाहन चालक। उन्होने भोजन किया। फिर कहा कि रात गुजारने के लिये कोई स्थान मिल सकता है क्या?
विजय जी के रेस्तरॉं में अभी इस तरह की सुविधा नहीं है। पर उन्होने (रेस्तरॉं के बन्द होने का समय हो ही गया था) हॉल में ही व्यवस्था कराई। उन लोगों ने अपने बिस्तर आदि अपने वाहन से उतारे और रात भर यहीं विश्राम किया। सवेरे रेस्तरॉं नौ बजे खुलता है; तब तक वे लोग तैयार हो कर रवाना हो गये। बाद में आगरा से उन लोगों ने फोन कर धन्यवाद ज्ञापन किया और कहा कि जब कभी इस ओर आयेंगे, यहां जरूर आयेंगे।
इस तरह छोटे छोटे पैकेजेज में गुडविल जमा कर रहे हैं विजय तिवारी। यह ग्राहक को ह्यूमन-टच वाली सर्विस देने की उनकी आदत उन्हें सफल बनायेगी – यह कामना करता हूं।
रामचरितमानस से चौपाइयां कोट कर रहे थे वे। कोई प्रसंग जिसमें हनुमान प्रभु राम से एकात्मता की बात करते हैं। मुझसे पूछा – आप रामायण पढ़ते हैं? उत्तरकाण्ड पढ़िये। जीवन जीने का तरीका और आज का समय – सभी लिख गये हैं तुलसीदास। इस इलाके में तुलसीदास को उद्धृत करने वाले बहुत हैं, पर एक रेस्तरॉं चलाने वाले व्यक्ति में इस प्रकार का परिष्कृत व्यक्तित्व होना नहीं पाया है।
उनका (लगभग्) मोनोलॉग चल रहा था; वर्ना मेरे मन में आया कि वह प्रसंग मैं भी कहूं जिसमें राम हनुमान से पूछते हैं – तुम कौन हो? और हनुमान का उत्तर – “देह बुध्या तु दासोहम्, जीव बुध्या त्वदंशक:, आत्मबुध्या त्वमेवाहम्” द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत – तीनों का सिन्थिसिस कर देता है।
सवेरे एक कप कॉफी, रेस्तरां में अकेले विजय जी के साथ बैठना और मानस-उत्तरकाण्ड पर आदान-प्रदान; रिटायर्ड जीवन में इससे बेहतर क्या चाहिये? क्या हो सकता है?
विजय जी ने कहा कि अब तक तो ज्वाइण्ट फैमिली के केनवास तले जिन्दगी चल रही थी। सब कुछ सामान्य था और कम्फर्टेबल भी। यह रेस्तरॉं तो पिंजरे से बाहर निकल पंख फड़फड़ाने की कवायद है। अब देखना है कि पंख कितने मजबूत हैं और उड़ान कितनी भरी जा सकती है।
मैं बेबाकी से कहता हूं – विजय तिवारी से इस तरह से दार्शनिक अन्दाज में सोचने और अभिव्यक्त करने की कल्पना नहीं करता था। … यह व्यक्ति अपना धन्धा, अपने कर्मचारियों पर व्यय, अपने उत्पाद की क्वालिटी और अपने ग्राहक के चुनाव को ले कर सोच रखता ही है; अपने जीवन जीने के तरीके और अपने वैल्यू सिस्टम पर भी सोचता है।
परिष्कृत सोच केवल शहरी और अभिजात्य भद्रलोक की ही बपौती नहीं है, जीडी। उगपुर गांव का एक ज्वाइण्ट फैमिली का एक व्यक्ति भी विलक्षण सोच रख सकता है।
चिन्ना मेन्यू पढ़ते हुये – S-h-a-h-i शाही। उसके आगे पनीर बिना पढ़े जोड़ लिया!
चिन्ना मेरे साथ है। वह मेन्यू के आइटमों के हिज्जे जोड़ कर आइटम जानने की कोशिश कर रही है। उसके लायक कोई सामग्री रेस्तरॉं में नहीं है। विजय उसके लिये एक पापड़ मंगवाते हैं। पिछली बार वह इस जगह पर आना नहीं चाहती थी। उसे लगा था कि यहां कोई इंजेक्शन लगाने वाले डाक्टर बैठते हैं। पर आज वह खुशी खुशी आयी थी।
कुल मिला कर श्री विजया रेस्तरॉं में आधा घण्टा गुजारना आजकल मुझे बहुत भा रहा है। समय गुजारना भी और तिवारी जी के साथ इण्टरेक्शन भी।
शादियों का मौसम है। गांवों में पहले लोग तिलक, गोद भराई और शादी की झांपियों के लिये हलवाई लगाते थे जो लड्डू, खाझा और हैसियत अनुसार अन्य मिठाई बनाता था। झांपी बांस की टोकरियों को कहा जाता है; जिन्हें मंगल कार्य अनुसार लाल-पीला रंग में रंग दिया जाता था। तिलक और गोद भराई में फल की टोकरी को सजाया जाता था और उसपर रंगबिरंगी पारदर्शक पन्नी लगाई जाती थी। यह सब काम घर पर ही होता था। घर-पट्टीदारी में एक दो लोग इस कार्य में पी.एच.डी. किये होते थे।
अब उस घरेलू उद्यम और विशेषज्ञता का स्थान बाजार ने ले लिया है। कस्बाई बाजार ने भी।